टॉर्च बेचनेवाला हरिशंकर परसाई Antra Bhag 1 torch bhechne wala Chapter 3 Class 11 hindi Summary
0Eklavya Study Pointअगस्त 13, 2024
व्याख्या
‘टार्च बेचने वाले’ हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचना है।
इसमें लेखक ने टॉर्च बेचने का कार्य करने वाले दो मित्रों, के माध्यम से बताया है कि दोनों में से एक टार्च बेचता हुआ, किस प्रकार संतों की वेशभूषा धारण करके, ऊँचे सिंहासन पर बैठकर, आत्मा के अँधेरे को दूरकरने वाली टार्च बेचना आरंभ कर देता है अर्थात् प्रवचन कर्ता बन जाता है।
दूसरा दोस्त उसके लाभप्रद धंधे को देखकर आश्चर्यचकित रह जाता है और उसका धंधा अपना लेता है।
टॉर्च बेचनेवाले का बदला हुआ रूप
लेखक टॉर्च बेचनेवाले को चौराहे पर प्रतिदिन टॉर्च बेचते देखता था, परंतु बीच में वह कुछ दिन चौराहे पर दिखाई नहीं दिया।
कल अचानक लेखक ने उसे चौराहे पर देखा, लेकिन वह टॉर्च नहीं बेच रहा था।
उसने अपनी दाढ़ी बढ़ा ली थी और लंबा कुर्ता पहन रखा था। उसका बाहरी रूप पूर्णतः बदला हुआ था।
लेखक द्वारा टॉर्च वाले पर किया गया व्यंग्य
लेखक ने टॉर्च बेचनेवाले का बदला हुआ रूप देखकर उससे इसका कारण पूछा।
टॉर्च बेचनेवाले ने उत्तर दिया, "अब तो आत्मा के भीतर टॉर्च जल उठा है।
ये 'सूरज छाप' टॉर्च अब व्यर्थ मालूम होते हैं।"
तभी लेखक उस पर व्यंग्य करते हुए कहता है, "तुम शायद संन्यास ले रहे हो।
जिसकी आत्मा में प्रकाश फैल जाता है, वह इसी तरह हरामखोरी पर उतर आता है।
क्या साहूकारों ने ज़्यादा तंग करना शुरू कर दिया?
क्या चोरी के मामले में फँस गए हो? आखिर बाहर का टॉर्च भीतर आत्मा में कैसे घुस गया?"
दोनों मित्रों द्वारा काम-धंधे का आरंभ करना
टॉर्च बेचनेवाले ने लेखक को सारी कहानी कह सुनाई।
वह लेखक को बताता है- पाँच साल पहले मैं अपने मित्र के साथ निराश एक जगह बैठा था।
हमारे सामने आसमान को छूता एक ही सवाल था- 'पैसा कैसे पैदा करें?' परंतु भरसक प्रयास करने के बाद भी हमें कोई उत्तर नहीं मिला।
तब मैंने अपने मित्र से कहा-यार, यह सवाल टलेगा नहीं।
चलो, इसे हल ही कर दें।
पैसा पैदा करने के लिए कुछ काम-धंधा करें।
उसी समय दोनों मित्र अलग-अलग दिशाओं में अपनी-अपनी किस्मत आज़माने निकल पड़े और पाँच साल बाद दोनों ने वहीं मिलने का वादा किया।
टॉर्च बेचने की कला
टॉर्च बेचनेवाला टॉर्च बेचने के लिए चौराहे या मैदान में लोगों को इकट्ठा कर लेता है और बहुत नाटकीय ढंग से कहता है-" आजकल सब जगह अँधेरा छाया रहता है। रातें बेहद काली होती हैं। अपना ही हाथ नहीं सूझता।
आदमी को रास्ता नहीं दिखता। वह भटक जाता है।
उसके पाँव काँटों से बिंध जाते हैं, वह गिरता है और उसके घुटने लहूलुहान हो जाते हैं।
शेर और चीते चारों तरफ घूम रहे हैं, साँप जमीन पर रेंग रहे हैं। अँधेरा सबको निगल रहा है।
अँधेरा घर में भी है। आदमी रात को पेशाब करने उठता है और साँप पर उसका पाँव पड़ जाता है।
साँप उसे डस लेता है और वह मर जाता है।"
इस तरह, जब टॉर्च वाले की बातें सुनकर लोग अँधेरे से भयभीत हो जाते हैं, तब वह कहता है- भाइयो, यह सही है कि अँधेरा है, मगर प्रकाश भी है।
वही प्रकाश मैं आपको देने आया हूँ।
हमारे 'सूरज छाप' टॉर्च में वह प्रकाश है, जो अंधकार को दूर भगा देता है।
इस प्रकार अपनी बातों से प्रभावित कर टॉर्च बेचनेवाला अपनी टॉर्च बेचने में सफल हो जाता है और उसका जीवन सुखपूर्वक कटने लगता है।
भव्य पंडाल में बैठा साधु
टॉर्च बेचनेवाले का मित्र अपने वादे के अनुसार पाँच साल बाद वहाँ नहीं पहुँचा, जहाँ उन्हें मिलना था, तो वह उस मित्र को ढूँढने के लिए निकल पड़ा।
उसे ढूँढते-ढूँढते उसकी नज़र एक मैदान में पड़ी।
उसमें खूब रोशनी थी। एक तरफ मंच सजा था।
लाउडस्पीकर लगे थे।
मैदान में हजारों नर-नारी श्रद्धा से झुके बैठे थे।
मंच पर सुंदर रेशमी वस्त्रों से सजे एक भव्य पुरुष बैठे थे। वे खूब पुष्ट थे।
सँवारी हुई लंबी दाढ़ी और पीठ पर लहराते लंबे केश।
वह भव्य पुरुष फिल्मों के संत लग रहे थे।
प्रवचन द्वारा लोगों को भयभीत करना
साधु लोगों को प्रवचन देता हुआ कह रहा था, "मैं आज मनुष्य को एक घने अंधकार में देख रहा हूँ।
उसके भीतर कुछ बुझ गया है। यह युग ही अंधकारमय है। यह सर्वग्राही अंधकार संपूर्ण विश्व को अपने उदर में छिपाए है।
आज मनुष्य इस अंधकार से घबरा उठा है। वह पथ-भ्रष्ट हो गया है।
आज आत्मा में भी अंधकार है। अंतर की आँखें ज्योतिहीन हो गई हैं। वे उसे भेद नहीं पातीं।
मानव-आत्मा अंधकार में घुटती है। मैं देख रहा हूँ, मनुष्य की आत्मा भय और पीड़ा से त्रस्त है।"
प्रवचन द्वारा ज्योति जगाने का आह्वान
इस प्रकार, साधु सर्वप्रथम लोगों को अंधकार से डराता है, तत्पश्चात् उन्हें सांत्वना देने के लिए कहता है, "भाइयों और बहनों, डरो मत !
जहाँ अंधकार है, वहीं प्रकाश है।
प्रकाश बाहर नहीं है, उसे अंतर में खोजो।
अंतर में बुझी उस ज्योति को जगाओ।2
मैं तुम सबका उस ज्योति को जगाने के लिए आह्वान करता हूँ।
मैं तुम्हारे भीतर वही शाश्वत ज्योति जगाना चाहता हूँ।
हमारे 'साधना मंदिर' में आकर उस ज्योति को अपने भीतर जगाओ।"
दोनों मित्रों के कारोबार में समानता
प्रवचन कर मंच से उतर कार में चढ़ने के क्रम में साधु की दृष्टि जैसे ही टॉर्च बेचनेवाले पर पड़ी, वह उसे पहचान लेता है कि यह कोई और नहीं, बल्कि अपना पुराना मित्र है।
फिर वह उसे अपने साथ कार में बिठाकर अपने बंगले में ले जाता है।
वहाँ पहुँचकर दोनों मित्र विगत पाँच वर्षों के दौरान किए गए अपने कार्यों के बारे में बातचीत करते हैं।
टॉर्च बेचनेवाला अपने साधु बने मित्र की बातें सुनकर उससे कहता है कि तुम जो सब कह रहे थे वही सब मैं भी अपनी टॉर्च बेचने के लिए कहता हूँ, तुम रहस्यात्मक ढंग से कहते हो और मैं सीधे ढंग से।
तुम चाहे कुछ भी कहो बेचते तो तुम टॉर्च ही हो।
कोई भी व्यक्ति दार्शनिक बने, संत बने या साधु बने अगर वह लोगों को अँधेरे का डर दिखाता है, तो ज़रूर वह अपनी कंपनी की टॉर्च ही बेचता है।
इस प्रकार लेखक ने व्यंग्यात्मक शैली में समाज में व्याप्त धर्म के नाम पर गुरुओं, महात्माओं व साधु-संतों पर कटाक्ष करते हुए लोगों को जाग्रत किया है।
टॉर्च बेचनेवाले का साधु बनने का निर्णय
टॉर्च बेचनेवाले की बातें सुनकर साधु बना उसका मित्र कहता है, "तेरी बात ठीक ही है। मेरी कंपनी नई नहीं है, सनातन है।"
यह कहकर साधु अपने मित्र को कुछ दिन अपने घर में ठहरने का आग्रह करता है, ताकि वह उसके कारोबार का रहस्य जान ले और वह भी धनाढ्य बन जाए।
टॉर्च बेचनेवाला दो दिन मित्र के यहाँ रुकने के बाद तीसरे दिन अपनी टॉर्च की पेटी नदी में फेंक देता है और अपने मित्र का रोज़गार अपनाने का निर्णय करता है।
वह दूसरे दोस्त के वैभव और धन-दौलत के चमक को देखकर निश्चय करता है कि ‘सूरज कंपनी’ के टार्च बेचने से अच्छा है कि वह भी धर्माचार्य बनकर लोगों के मन के अँधेरे को दूर कर पैसे कमाए |